Sunita gupta

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स्वैच्छिक विषय जय नेमीनाथ , नरवाहन

*JAY NEMINATH* 🙏🙏🙏

*नरवाहन राजा ने परमात्मा से प्रश्न किया कि "हे प्रभु ! मेरा मोक्ष कब होगा?*

*वर्तमान श्री नेमिनाथ परमात्मा की प्रतिमा का
इतिहास:-*
*इस जंबूद्विप के भरतक्षेत्र की गत चौबीसी के सागर नामक तीसरे तीर्थंकर को कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ था l उत्तमज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् विविध प्रदेशो में विचरण करते हुए वे अपने चरणकमल की रज द्वारा भरतखंड की धन्य धरा को पावन कर रहे थे। एक बार उज्जैनी नगरी के बाहर उद्यान में करोडो देवों द्वारा रचित समवसरण में परमात्मा की सुमधुर देशना का अमृतपान कर रहे नरवाहन राजा ने परमात्मा से प्रश्न किया कि "हे प्रभु ! मेरा मोक्ष कब होगा?*

*परमात्मा ने कहा कि अगली चौबीसी के बाईसवें तीर्थंकर बालब्रह्मचारी श्री नेमिनाथ भगवान के शासन में तेरा मोक्ष होगा l अपने भाविवृत्तांत को जानकर वैराग्यवासित बने नरवाहन राजा भगवान के पास दीक्षा लेकर संयमधर्म की उत्कृष्ट आराधना करने लगे l कालक्रम से आयुष्य पूर्ण होते ही वह जीव पांचवें देवलोक का दस सागरोपम के आयुष्यवाला इन्द्र बना l*

*अष्टमहाप्रातिहार्ययुक्त विश्वविभु विचरण करते-करते चंपापुरी के महाउद्यान में समवसरे l उस समय वैराग्यसभर वाणी द्वारा बारह पर्षदा को प्रतिबोध करते हुए परमेश्वर चौदराज लोक में रहे हुए सिद्धजीव और सिद्धशिला के स्वरुप को सुरम्य वाणी द्वारा प्रकाशित कर रहे थे, कि "45 लाख योजन के विस्तारवाली, उलटे छत्र के आकारवाली, श्वेतवर्ण की सिद्धशिला है। वह चौदराजलोक के अग्रभाग पर बारह देवलोक, नवग्रैवेयक, सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तरविमान से 12 योजन ऊपर स्थित है। सिद्धशिला मध्य भाग में आठ योजन मोटी है और दोनों तरफ पतली होते होते मक्खी के पंख जितनी अतिशय पतली होती है। मोती, शंख, स्फटिकरत्न समान अतिनिर्मल, उज्ज्वल सिद्धशिला और अलोक के बीच एक योजन का अंतर होता है। इस अंतर में ऊपर की सपाटी पर उत्कृष्ट से 333 धनुष्य और 32 अंगुल के उत्कृष्ट देहप्रमाण वाले सिद्ध के जीव आठ कर्मों से मुक्त होकर अलोक की सपाटी को स्पर्श करके रहे हुए है, उस भाग को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष के मुक्ति, सिद्धि, परमपद, भवनिस्तार, अपुनर्भव, शिव, निःश्रेयस, निर्वाण, अमृत, महोदय, ब्रह्म, महानंद आदि अनेक नाम हैं l उस मुक्तिपुरी में अनंत सिद्ध जीव अनंत सुख में वास करते हैं। वे अविकृत, अव्ययरूप, अनंत, अचल, शांत, शिव, असंख्य, अक्षय, अरूप और अव्यक्त हैं। उनका स्वरूप मात्र जिनेश्वर परमात्मा अथवा केवली भगवंत ही जानते हैं।*

*सर्वार्थसिद्ध विमान में निर्मल अवधिज्ञान वाले महेन्द्रों को एक करवट बदलने में 16 सागरोपम और दूसरी करवट बदलने में 16 सागरोपम का काल पसार होता है। इस तरह 33 सागरोपम के आयुष्य को अगाध सुख में सोते सोते ही पूर्ण करते हैं l इससे भी अनंतगुणा सुख मोक्ष में है। योग से पवित्र ऐसे पुरुष कर्म का नाश होने से स्वयं ही जान सकते है, किंतु वचन द्वारा वर्णन न हो सके ऐसा मुक्तिसुख सिद्ध के जीव प्राप्त करते हैं।*

*इस देशना के समय पांचवें देवलोक में इन्द्र बना हुआ नरवाहन राजा का जीव वीतराग की वाणी का सुधापान करके, स्वर्ग के सुखों की नि:स्पृहा करके, सर्वज्ञ भगवंत को नमन करके पूछता है, "हे स्वामी ! मेरे इस भवसागर का परिभ्रमण कभी रूकेगा या नहीं? आपके द्वारा वर्णन किए हुए मुक्तिरूप मेवा का आस्वाद करने का अवसर मुझे मिलेगा या नहीं?*

*उसकी शंका का निवारण करते हुए धर्मसार्थवाह प्रभु कहते हैं, "हे ब्रह्मदेव ! आप आने वाली अवसर्पिणी में श्री अरिष्टनेमि नामक बाईसवें तीर्थंकर होने वाले हैं, उनके वरदत्त नामक प्रथम गणधरपद को प्राप्त करके, भव्यजीवों को बोध करा के, सर्वकर्मों का क्षय करके, रैवतगिरि के आभूषण बन के परमपद को प्राप्त करेंगे। यह नि:संशय बात है।*

*"प्रभु के इन अमृतवचनों को सुनकर आनंदविभोर हुए ब्रह्मेन्द्र सागर प्रभु को अत्यंत आदरपूर्वक अभिवंदन करके अपने देवलोक में जाता है। "अहो ! मेरे अज्ञानरूपी अंधकार का छेदन करने वाले, मेरे भवसंसार के तारणहार श्री नेमिनिरंजन की उत्कृष्ट रत्नों की मूर्ति बनाकर उनकी भक्ति द्वारा मेरे कर्मों का क्षय करूं।" इस भाव के साथ बारह-बारह योजन तक जिनकी कांति फैले ऐसे अंजन स्वरूपी प्रभु की वज्रमय प्रतिमा बनाकर दस सागरोपम तक निशदिन शाश्वत प्रतिमा की तरह संगीत-नृत्य- नाटकादि  द्वारा त्रिकाल उपासना करते हैं।*

*इस तरह श्री नेमिनाथ प्रभु की भक्ति में उत्तरोत्तर उत्तमभाव लाकर स्व आयुष्य की अल्पता को जानकर उस प्रतिमा के साथ सुवर्णमय, रत्नमय ऐसी अन्य प्रतिमाओं को भी रैवताचल पर्वत की गुफा में कंचनबलानक नामक चैत्य का निर्माण करके स्थापना की। स्व आयुष्य पूर्ण करके, वहाँ से च्यवन करके अनेक बड़े-बड़े भवों को प्राप्त करके वह नेमिनाथ प्रभु के समय में पुण्यसार नामक राजा बना l*

*"यह पुण्यसार राजा पूर्वभवों में स्वयं भरायी हुई देवाधिदेव की मूर्ति की दस-दस सागरोपम काल तक की हुई भक्ति के प्रभाव से गणधरपद प्राप्त करके नेमिनाथ भगवान के वरदत्त नामक प्रथम गणधर बनेंगे और शिवरमणी के संग में शाश्वत सुख का उपभोग करेंगे।" समवसरण में देशना दरम्यान श्री नेमिनाथ प्रभु के इन मधुरवचनों को सुनकर उस समय के ब्रह्मेन्द्र उठकर परमात्मा को नमस्कार करके कहते हैं कि "हे भगवंत ! आपकी उस प्रतिमां को मैं आज भी पूजता हूँ, और मेरे पूर्वज इन्द्रों ने भी भक्ति से उसकी उपासना की है। पांचवें देवलोक में उत्पन्न होने वाले सभी ब्रह्मेन्द्र आपकी उस प्रतिमा की पूजा भक्ति करते थे। आज आपके बताने पर ही इस प्रतिमा की अशाश्वतता का पता चला है l हम तो इसे शाश्वत ही मानते थे।*

*उस समय प्रभु कहते हैं कि "हे इन्द्र ! तिरछा लोक की तरह देवलोक मे अशाश्वती प्रतिमा नही होती इसलिए आप उस प्रतिमा को यहाँ लाओ।" प्रभु की आज्ञा से इन्द्र शीघ्र उस मूर्ति को ले आए l कृष्ण महाराजा ने हर्ष से पूजा करने के लिए वह मूर्ति प्रभु से ली।* 

*सुर-असुर और नरेन्द्र श्री नेमिनाथ प्रभु को वन्दन करके उनके मुख से रैवताचलगिरि का माहात्म्य सुनने लगे। प्रभु कहते हैं कि - यह रैवताचलगिरि पुंडरिक गिरिराज का सुवर्णमय पाँचवाँ मुख्य शिखर है, जो मन्दार और कल्पवृक्ष आदि उत्तम वृक्षों से लिपटा हुआ है। यह महातीर्थ हमेशा झरते हुए झरनों से भव्य जीवों के पापों का प्रक्षालन करता है। इसके स्पर्श मात्र से हिसा के पाप दूर हो जाते हैं। सभी तीर्थ की यात्रा के फल को देने वाले इस गिरनार के दर्शन और स्पर्शन मात्र से सर्व पाप नाश होते हैं। इस गिरनार तीर्थ पर आकर जो न्यायोपार्जित धन का सद्व्यय करते हैं, उन्हें जन्मोंजनम संपत्ति की प्राप्ती होती है।  जो यहाँ आकर भाव से जिनप्रतिमा की पूजा करते हैं, वे मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं, तो मानवसुख की तो बात ही क्या करनी?  जो यहाँ सुसाधु को शुद्ध अन्न, वस्त्र और पात्र वहोराते है, वे मुक्ति रूपी स्त्री के हृदय को आनंदित करते हैं। इस रैवतगिरि पर स्थित वृक्ष और पक्षी भी धन्य और पुण्यशाली हैं, तो मनुष्यों की तो बात ही क्या करनी ? देवता, ऋषि, सिद्धपुरुष, गंधर्व और किन्नरादि हमेशा इस तीर्थ की सेवा करने आते हैं। गिरनार पर रहे हुए गजपद कुंड आदि अन्य कुंडों का अलग-अलग प्रभाव है, जिसमें मात्र 6 महीने स्नान करने से प्राणियों के कुष्ठादि रोग नाश होते हैं।*

*इस प्रकार बालब्रह्मचारी श्री नेमिनिरंजन के मुखकमल से गिरनार तीर्थ की महिमा सुनकर पुण्यशाली सुर-असुर और नरेश्वर आनंदित होते हैं। उस अवसर पर श्री कृष्ण वासुदेव प्रश्न करते हैं, "हे परम करुणासागर ! यह प्रतिमा जो मेरे प्रासाद में स्थापित करवानी है, वह वहाँ कितने समय तक रहेगी? इसके बाद इसकी कहाँ-कहाँ पूजा होगी?*"

*प्रभु कहते हैं, "जब तक द्वारिकापुरी रहेगी तब तक यह प्रतिमा तुम्हारे प्रासाद में पूजी जाएगी। उसके बाद कांचनगिरि पर देवताओं के द्वारा इसकी पूजा होगी l मेरे निर्वाण के 2000 वर्ष के बाद अंबिका देवी की आज्ञा से उत्तम भावनावाला रत्नसार नामक वणिक एक गुफा में से प्रतिमा को रैवतगिरि के प्रासाद में बिराजमान कर, पूजा करेगा l बाद में 1,03,250 वर्ष तक यह प्रतिमा वहा रहकर फिर वहा से अदृश्य होगी। उस समय दुषम-दुषम काल का छठा आरा प्रारंभ होते ही अधिष्ठायिका अंबिकादेवी उस जिनबिंब को पाताललोक में पूजेगी l अन्य देवता भी उसकी पूजा करेंगे l कि यह प्रतिमा अतीत चौवीशी के तीसरे सागर तीर्थंकर परमात्मा के काल में पांचवें ब्रह्मलोक देवलोक के ब्रह्मेन्द्र द्वारा भरवायी गयी है। इस कारण से भरतक्षेत्र में वर्तमान मे सबसे प्राचीनतम प्रतिमा मानी जाती है।*

*श्री नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा की प्राचीनता का काल : अतीत उत्सर्पिणी के प्रथम आरे के 21000 वर्ष + दूसरे आरे के 21000 वर्ष + तीसरे आरे के 84250 वर्ष के बाद सागर तीर्थंकर हुए इसलिए* *21000+21000+84250 = 126250 वर्ष व्यतीत होने के कुछ वर्षों के बाद ब्रह्मेन्द्र द्वारा प्रतिमा भरवायी हुई होगी l इस कारण से अतीत उत्सर्पिणी के 10 कोडाकोडीसागरोपम में 126250 से कुछ अधिक वर्ष न्यून काल अतीत उत्सर्पिणी का हुआ l 126250 वर्ष न्यून 10 कोडाकोडी सागरोपम में वर्तमान अवसर्पिणी काल के 10 कोडाकोड़ी सागरोपम काल में से छट्टे आरे के 21000 वर्ष तथा पाँचवें आरे के शेष 18484 वर्ष कम करने पर 39485 वर्ष न्यून इस अवसर्पिणी काल की प्राचीनता का होता है।*

*इसीलिए - 126250 वर्ष न्यून 10 कोडाकोडी सागरोपम + _39585 वर्ष न्यून 10 कोडाकोडी सागरोपम 165735 वर्ष न्यून 20 कोडाकोडी सागरोपम वर्तमान श्री नेमिनाथ परमात्मा की प्रतिमा 165735 वर्ष न्यून 20 कोडाकोडी सागरोपम वर्ष प्राचीन है।*

*इस प्रतिमा का वर्तमान स्थान पर प्रतिष्ठित होने का काल : -*
*श्री नेमिनाथ प्रभु के निर्वाण के 2000 वर्ष के बाद प्रतिष्ठित होने से उनके शासन के शेष 82000 वर्ष + श्री पार्श्वनाथ प्रभु के शासन 250 वर्ष + श्री महावीर स्वामी के शासन के 2535 वर्ष से यह प्रतिमा प्रतिष्ठित है। 82000 + 250 + 2535 वर्ष = 84785 वर्ष से यह प्रतिमा इस स्थान पर बिराजमान है। 
कॉपी पेस्ट कहानी 
सुनीता गुप्ता सरिता कानपुर 

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4 Comments

HARSHADA GOSAVI

27-Aug-2023 07:27 AM

nice

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RISHITA

27-Aug-2023 06:11 AM

ला जवाब

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madhura

19-Aug-2023 06:35 AM

बहोत खूब

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